Best Buddha Story In Hindi | कर्म बड़ा या भाग्य ?

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Best Buddha Story In Hindi | कर्म बड़ा या भाग्य ?

Best Buddha Story In Hindi | कर्म बड़ा या भाग्य ? – दोस्तों आज की इस ब्लॉग पोस्ट में मैंने आपको गौतम बुद्ध की एक ऐसी कहानी (Buddha Story In Hindi) के बारे में बताया है, जिसे पढ़कर आप बोहोत अच्छे से समझ जायेंगे कि हमें अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए या भाग्य के भरोसे बैठ कर सबकुछ उसपर छोड़ देना चाहिए। गौतम बुद्ध की इस कहानी Latest Buddha Story In Hindi में एक ऐसा सूत्र बताया गया है, जो आपके जीवन को बेहतर और आसान बना सकता है।

गौतम बुद्ध की प्रेरणास्पद कहानियाँ ( Best Buddha Story In Hindi ) जीवन के महत्वपूर्ण सवालों के उत्तर खोजने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करती हैं, इन कहानियों से आप यह भी जानेंगे कि कैसे एक व्यक्ति अपने जीवन को शांति, समृद्धि, और आत्मिक समृप्ति के माध्यम से सफलता की ओर अग्रसर हो सकता है।

buddha story In Hindi आपको जीवन के बारे में बोहोत कुछ सिखा सकती है आज के इस blog post पर अंत तक बने रहें मुझे यकीन है आप यहाँ से बोहोत कुछ सीख कर जायेंगे।

प्रस्तावना

दोस्तों जीवन का सबसे अनोखा सवाल है – “कर्म बड़ा या भाग्य?” यह एक ऐसा सवाल है जो हर किसी के मन में उठता है, जीवन में कभी ना कभी ऐसा समय जरूर आता है जब आप “कर्म और भाग्य में से क्या बड़ा है” जैसे सवालों में उलझ कर रह जाते हैं।

कई बार मन में सवाल उठता है कि क्या हम खुद अपने कर्मों के अधीन हैं? या क्या हमारा भाग्य हमारे जीवन का मालिक है? यह सवाल आपको अक्सर परेशान करता है, और इसका उत्तर खोजने के लिए हम सब कुछ करते हैं।

तो चलिए आज इस सवाल का जवाब गौतम बुद्ध की इस कहानी Latest Buddha Story In Hindi के द्वारा जानने की कोशिश करते हैं, क्योंकि कर्म और भाग्य के बीच के इस खेल में हम सभी भागी हैं।

कहानी : कर्म बड़ा या भाग्य ? – (Buddha Story In Hindi)

यह कहानी है पुराने मध्य भारत की एक रियासत की, रियासत के महाराज देवराज की दो रानियाँ, सुरुचि और सुनिधि थी। राजा देवराज की पहली पत्नी का नाम सुरुचि था, जिसका स्वाभाव किसी साध्वी से कम नहीं था।

वह आस्था और स्नेह की मूरत थी। सुरुचि की गौतम बुद्ध के प्रति गहरी आस्था थी। वो हमेशा गौतम बुद्ध की शिक्षाओं को अपनाकर उनके बताये मार्ग पर चलने की कोशिश किया करती थी।

सुरुचि एक बेटे की माँ थी। इसीलिए उसका बेटा वीर भी वहीँ उनके साथ खेलता रहता। रियासत के महाराज देवराज की दूसरी पत्नी का नाम सुनीधि था, जिसके बेटे का नाम सुमंत था। सुनीधि देखने में बहुत ज़ादा खूबसूरत थी।

इसीलिए महाराज देवराज का पूरा ध्यान अपनी दूसरी पत्नी सुनिधि के ऊपर ही रहता। वह हमेशा सुनिधि की खूबसूरती में खोए रहते। राजमहल की ज्यादातर तमाम सुख सुविधाए दूसरी पत्नी सुनिधि और उसके बेटे सुमंत को ही मिला करती।

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दोनों ही पत्नियों के राजदूलारो की खिलखिलाहट से पूरा महल जगमग रहता। राज्य के लोग अक्सर सोचा करते कि भविष्य मे राज गद्दी पर कौन बैठेगा? इस पर ज़ादातर लोगो का मानना था कि भविष्य का राजा तो सुरुचि का पुत्र वीर ही होगा,

क्योंकि धर्म और नीती के अनुसार बड़े पुत्र को ही राज गद्दी मिलनी चाहिये। लेकिन समय की लकीरो को कुछ और ही मंजूर था। देवराज की पहली पत्नी सुरुचि का स्वाभव बड़ा शांत और न्याय संगत था। वो हमेशा न्याय और धर्म की बातें किया करती थी।

माँ के साथ रहते रहते बेटा वीर भी उसी स्वाभव का हों गया था। वीर अब धीरे धीरे बड़ा हों रहा था। लेकिन स्वाभाव से वह इतना संतोषी था कि उसे जो भी मिलता वो भी माँ की तरह संतोष कर लेता।

समय का चक्र चलता है और वह दिन भी आ जाता है जब राजकुमार का राज्याभिषेक होना था। रियासत का दरबार सजा हुआ था। उस दिन होने वाले राजकुमार के नाम की घोषणा की जानी थी।

राज्य की प्रजा को इस बात का पूर्ण विश्वास था कि होने वाला राजकुमार तो वीर ही होगा। महाराज अपनी चहेती पत्नी सुनिधि के साथ, सिंघासन पर बैठे हुए थे।

महाराज अपने छोटे बेटे सुमंत को गोद में बैठाए दुलार रहे थे। वीर भी अपनी माँ सुरुचि के साथ राजदरबार में ही बैठा हुआ था। सभी पुरोहितों ने वीर की माँ को पहले ही बता दिया था कि आज राजदरबार में वीर के राज तिलक की पूजा है, उसे तैयार करके लाना।

वीर की माँ सुरुचि ने बड़े ही प्यार और दुलार से अपने बेटे को तैयार किया और ईश्वर के सामने प्रार्थना की। महल में चारों ओर शंखों की ध्वनि गूँज रही थी, पुरोहितों ने वीर का नाम भी लिया।

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वीर सौम्य अंदाज़ में पिता की गद्दी की तरफ बढ़ा, लेकिन जैसे ही पिता आशीर्वाद देने के लिए हाथ उठाते हैं, दूसरी रानी सुनिधि ने वीर को गुस्से से पीछे धकेल दिया।

वीर की आँखों से आंसू की धार बह निकली, भरे राजदरबार में गुस्से से लाल, रानी सुनिधि ने वीर की कलाई को मोड़ दिया था। और उसे सिंघासन पर पहुंचने से रोक दिया।

सुनिधि अपने कड़े शब्दों और सख्त आवाज के साथ वीर से बोली, “तुम इस सिंघासन और महाराज की गोद में बैठने लायक नहीं हो, अर्थात तुम इस सिंघासन पर नहीं बैठ सकते?”

इस सिंघासन पर तो मेरा बेटा सुमंत ही बैठेगा, क्योंकि सिंघासन पर बैठने वाला काबिल हों या न हो, वो चहेती रानी का पुत्र ही होना चाहिए। तुम दासी के बराबर वाली रानी के पुत्र हो। तुम अपनी माँ के पास जाओ और बुद्ध की सेवा करो।

यही तुम्हारे लिए ठीक होगा। मेरे रहते तुम इस सिंघासन पर नहीं बैठ सकते, तुम्हारे भाग्य में ये सिंघासन नहीं है। जाओ, पहले अपना भाग्य बदल कर आओ। राजकुमार बनने के लिए तो तुम्हें मेरी कोक से जन्म लेना पड़ेगा।

यह सब सुनकर पूरा राजदरबार हक्का बक्का रह गया। सब आश्चर्य भरी नजरों से महाराज देवराज की ओर देख रहे थे कि महाराज क्यों कुछ नहीं बोल रहे? लेकिन महाराज नजरें झुकाए खामोश बैठे रहे, क्योंकि उनकी आँखों और मन पर तो रानी सुनिधि की खूबसूरती और विलासता का पर्दा पड़ा हुआ था।

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ऐसे में वो रानी की मर्जी के खिलाफ कुछ कैसे कर सकते थे? वीर को अपनी सौतेली माँ की बातों का इतना बुरा नहीं लगा, जितना बुरा उसे अपने पिता के चुप होने का लगा। कुछ देर बाद वह और उसकी माँ सुरुचि राजमहल के बाहर चले गए।

शाम ढल चुकी थी और आरती का समय भी हो चला था। वीर की माँ सुरुचि ने वीर को अपने पास बुलाया और सीने से लगा लिया। वीर का चेहरा देखकर उसे बहुत दुख हो रहा था।

वह मन ही मन सोच रही थी कि मेरे प्यारे से बच्चे के साथ आज राजमहल में कितना बुरा व्यवहार किया गया है। क्या बीती होगी मेरे फूल से बच्चे पर? माँ के सीने से लगे हुए वीर ने पूछा, “माँ! पिता जी हमारे साथ ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं? अब हमारा क्या होगा?

क्या मुझे कभी किसी का मान-सम्मान प्राप्त नहीं होगा?” जवाब देते हुए वीर की माँ ने अपनी ऊँगली से मंदिर की तरफ इशारा किया, यह कमरा कुछ दूरी पर था और इसमें महात्मा बुद्ध की मूर्ति रखी हुई थी।

वीर ने चौंक कर उस तरफ देखा और इशारा करते हुए पूछा, “वहाँ क्या है माँ?” जवाब देते हुए माँ बोली, “बेटा, वो महात्मा बुद्ध है, वहीं तुम्हे सिद्ध बनाएंगे। वही तुम्हे एक ऐसा इंसान बनाएंगे जिसका सम्मान पूरी दुनिया करेगी।

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उनकी शरण में जाओ बेटा। ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ ये पंक्ति सुनते ही वीर ने बहुत अच्छा महसूस किया। सुरुचि बोली, “बेटे! तुम्हारे लिए इस सिंघासन से भी बड़ा एक और सिंघासन बना हुआ है।

इसलिए तुम इस सिंघासन की लालसा और मोह त्याग कर उस बड़े सिंघासन को प्राप्त करो। जब तुम उस सिंघासन पर बैठोगे, तो तुम्हें जो प्राप्त होगा, वो अमूल्य होगा, लेकिन बेटे, उसे पाना इतना आसान नहीं।

तुम्हें उस सिंघासन तक पहुंचने के लिए महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं को अपना कर उनपर चलना होगा।” लेकिन वीर ये समझ नहीं पा रहा था कि उसकी माँ आखिर किस तरह के सिंघासन की बात कर रही है, जो इतना बड़ा है कि राज सिंघासन भी उसके आगे कुछ नहीं है।

वीर को बात कुछ समझ नहीं आ रही थी, क्योंकि उसके कानों में तो अभी भी सौतेली माँ के ताने गूंज रहे थे, कि वह अभागा है और उसे कभी भी मान-सम्मान प्राप्त नहीं होगा। वीर के मन में ये सारी उथल-पुथल चल ही रही थी कि वीर की माँ उसे बुद्ध की मूर्ति के सामने लाकर खड़ा कर देती है और कहती है, “बेटा, अब सिर्फ महात्मा बुद्ध ही तुम्हारा कल्याण करेंगे।

तुम उन्हीं के बताए मार्ग पर चलो। वहीं से तुम्हारा उद्धार होगा।” उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करो। तुम्हें पता चल जाएगा कि जीवन का असली सुख कहाँ है। माँ की बातें सुनकर वीर ने फिर एक सवाल किया, “माँ, क्या बुद्ध का स्थान पिता से भी बढ़कर है?” वीर की माँ मुस्कराते हुए बोली, “बेटा, महात्मा बुद्ध सबसे ऊपर है।”

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माँ की इस बात से वीर बोहोत प्रेरित हुआ और बोला, “माँ, आज से मैं बुद्ध की गोद में ही बैठूंगा। उन्हीं के बताए मार्ग पर चलूंगा और उन्हीं के विचारों का पालन करूंगा। मैं कठिन से कठिन साधना करूंगा जिससे कि वह मुझसे प्रसन्न हो जाएं।”

उनकी सभी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारूंगा। वीर ने बड़े ही दृढ़ निश्चय से बोला, “देख लेना माँ, एक दिन बुद्ध मुझे अपनी गोद में जरूर बिठाएंगे।” रानी सुरुचि अपने बेटे की इन मासूम बातों को सुनकर हैरान थी।

माँ ने वीर को अपनी गोद में उठाया और कहा, “बेटा तुम पूरे मन से बुद्ध की बातों का अनुसरण करना।” वीर ने माँ की गोद से उतरते हुए कहा, “माँ, आज से मेरे आराध्य बुद्ध हो गए हैं। अब वही मेरे सब कुछ हैं। अब वीर रोज़ाना नियमबद्ध होकर बुद्ध की उपासना करने लगा। धीरे-धीरे वह ध्यान में उतरता गया।

फिर एक दिन ऐसा भी आया जब वीर ने राज महल छोड़ने का फैसला कर लिया। वीर के इतना बड़ा फैसला लेने पर सभी लोग हैरान थे और माँ को भी चिंता हो रही थी। लेकिन सभी बातों को दरकिनार करते हुए वीर अपनी माँ को प्रणाम कर ज्ञान प्राप्ति के लिए जंगल की ओर निकल गया।

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महाराज देवराज को जब यह पता चला कि वीर राजमहल छोड़कर जंगल में जा चुका है, तो महाराज देवराज को भी अपनी गलती का एहसास होने लगा। लेकिन इतना सब होने पर भी वह कुछ ना कर पाए।

वीर बुद्धम शरणम गच्छामी शब्दों का निरंतर जाप करता हुआ अपने पथ पर निकल गया। वीर ने मीलों की यात्रा की और यात्रा करते करते उसकी मुलाक़ात एक बौद्ध भिक्षु से हुई। वो एक छोटी सी कुटिया में रहा करते थे। वहाँ कुटिया में उनके साथ उनके कुछ शिष्य भी रहा करते थे।

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उनके कुछ शिष्य भी रहा करते थे। वीर ने बौद्ध भिक्षु से कहा, ‘महात्मन’ आप बोहोत ज्ञानी लगते है, क्या आप मुझे भी ज्ञान की कुछ बातें सीखा सकते हैं ? मैं बुद्ध से मिलना चाहता हूँ क्या आप उनसे मिलने में मेरी सहायता कर सकते है ?

इसके जवाब में बौद्ध भिक्षु ने वीर को महात्मा बुद्ध की कहानी बताते हुए कहा कि ख़ुद को जान लेना ही बुद्ध को जान लेना है। लेकिन फिर भी वीर ने बुद्ध से मिलने की ज़िद्द नहीं छोड़ी।

तब बौद्ध भिक्षु ने कहा, “तुम अभी आराम करो, मैं कल सुबह तुमसे बात करूंगा।” पूरी रात गुजर गई और वीर बुद्धम शरणम गच्छामी का जाप करता रहा। सुबह हुई तो वीर फिर से बौद्ध भिक्षु के पास पहुँचा और वही सवाल करने लगा।

भिक्षु ने जवाब मे कहा कि  “अभी मेरी एक अंगूठी खो गई है। उसमे मेरी जान बसती थी, वह मेरे लिए सबकुछ है। तुम पहले मेरी अंगूठी खोज दो, फिर मैं तुम्हे बुद्ध से मिलवा सकता हूँ।” भिक्षु की बात सुनकर वीर खुश हो गया और पूरे मन से उस अंगूठी को खोजने में लग गया।

सुबह से रात हों गई। लेकिन वीर को वह कहीं अंगूठी नहीं मिली। फिर बौद्ध भिक्षु ने वीर को दिया लेने के लिए कुटिया के अंदर भेजा। वहाँ पहुँच कर वीर देखता है कि अंगूठी तो अंदर ही संभाल कर रखी हुई है।

यह दृश्य देख कर वीर को बहुत दुख हुआ। वह भिक्षु के पास गया और बोला की ज़ब आपने अंगूठी को अंदर ही रखा हुआ था, तो आपने मुझसे उसे बाहर क्यों तलाश करवाया।

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इसका जवाब देते हुए बौद्ध भिक्षु ने कहा कि जिस तरह अंगूठी कुटिया के भीतर थी और तुम उसे बाहर खोज रहे थे, ठीक उसी तरह बुद्ध भगवान भी तुम्हारे अंदर विराजमान है, फिर तुम उन्हें बाहर क्यों खोज रहे हो।

ख़ुद को मोह सम्मान, लालच, बुराली, अपमान, क्रोध, क्रूरता, ईर्षा जैसे भावनाओं से मुक्त कर दो। किसी की बातो का बुरा मानना, क्रोध करना और किसी भी प्रकार की लालसा मन से त्याग दो।

तुम बस इतना ही करो फिर देखना, बुद्ध तुम्हे तुम्हारे अंदर ही मिल जाएंगे। इसके बाद भिक्षु ने वीर को गौतम बुद्ध की शिक्षाओं से उनके जीवन से अवगत कराया।

भिक्षु की ज्ञान की बातें सुनकर वीर समझ चुका था कि बुद्ध एक साधारण पुरुष से कैसे महात्मा बुद्ध बने थे। तब इसका उनके मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा, वह बहुत प्रेरित हुआ। वीर ने अब गहरे ध्यान में डूब कर बुद्ध की उपासना शुरू कर दी।

जैसे जैसे वीर का ध्यान गहरा होता गया, उसी तरह वीर को आत्म ज्ञान की प्राप्ति होने लगी। फिर एक वक्त ऐसा भी आता है जब वीर की सारी इच्छाएं ख़त्म हो गई, वीर के मन से सभी लालसाएँ ख़त्म हों गई।

वीर अब एक बोहोत ही अद्भुत आनंद का एहसास कर रहा था। लम्बे वक़्त तक नियम बद्ध तरीके से ध्यान करने के कारण उसे आत्म ज्ञान की प्राप्ति हुई। अब वीर के मुख का तेज इतना बढ़ गया था कि लोग जब उसे देखते, तो महा संत कहने लगते।

यह बात कुछ समय बाद मध्य रियासत तक पहुँच गई की पर्वत की शिला में कोई बड़े प्रतापी तेजस्वी बौद्ध भिक्षु ध्यान में मग्न रहते है। राजमहल की तरफ से वीर को बुलावा भेजा गया।

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रियासत की हालत ठीक नहीं चल रही थी, क्योंकि महाराज का दूसरा बेटा विलासता में बर्बाद हो चुका था। उसने लगभग पूरे राज्य का सर्वनाश कर दिया था। महाराज की दूसरी पत्नी सुनिधि का हुस्न व खूबसूरती भी उम्र के साथ ढल चुकी थी।

वहीं दूसरी ओर वीर की समृद्धि दूर दूर तक फैलती जा रही थी। एक दिन ऐसा भी था, ज़ब वीर को सिंघासन पर बैठने के लायक नहीं समझा गया था, और एक दिन ऐसा भी आया जब बौद्ध भिक्षु के रूप में वीर ने राजमहल में कदम रखा।

वीर को देख कर प्रजा की आँखों में आंसू भी थे, और सम्मान भी। महाराज और सुनिधि हाथ जोड़े पछतावे के आंसू रो रहे थे। वीर की माँ के कानों में भी बच्चे वीर की बातें साफ साफ गूंज रही थी।

बौद्ध भिक्षु रूपी वीर जब महल में पोहोचता है, तो सबसे पहले महात्मा बुद्ध की प्रतिमा को प्रणाम करता है और कहता है कि दूसरों की सेवा से बड़ी कोई विलासता नहीं। कोई भी सिंघासन कोक से नहीं बल्कि काबिलियत से तय होता है।

वीर ने राज सिंघासन का त्याग कर दिया और त्याग करने के लिए मंदिर रूपी कमरे की ओर चलने लगा। वहाँ वीर को देखने वाले लोग महसूस कर पा रहे थे कि जैसे कोई शांति की मूर्ति चल रही हो, बुद्ध की शरण में जाकर एक साधारण सा बालक, वीर सिद्ध पुरुष बनकर लौटा था।

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दक्षिण भारत में आज भी यह कहा जाता है कि वीर को सबने बुद्ध मंदिर की ओर जाते तो देखा था, पर वापस आते कभी नहीं देखा गया। वीर ज़ब मंदिर के भीतर गया तो वहाँ पर बस भिक्षु वस्त्र ही मिले थे।

कहा जाता है कि वीर अब सिद्ध पुरुष हो चुका था और उसे बुद्ध के चरणों में शरण लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।

निष्कर्ष

दोस्तों कहानी Best Buddha Story In Hindi सुनकर आप समझ ही गए होंगे कि कर्म भाग्य से कही बड़ा होता है इसीलिए भाग्य के भरोसे बैठे लोग आज इस बात को अच्छे से समझ लें कि भाग्य के भरोसे बैठे रहने से कुछ नहीं मिलेगा।

यदि आपको कुछ प्राप्त करना है तो अपने कर्मों पर ध्यान दें इस बात पर ध्यान दें कि आप किसी चीज के लिए पर्याप्त कर्म कर रहे हैं या नहीं। फिर देखिए कैसे चमत्कार घटित होते हैं आपके जीवन में।

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FAQ

गौतम बुद्ध का जन्म कब और कहाँ हुआ था?

गौतम बुद्ध का जन्म लुम्बिनी, नेपाल में 563 ईसा पूर्व को हुआ था।

गौतम बुद्ध के शिष्यों के कुछ प्रमुख नाम क्या थे?

गौतम बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में अनांद, सारिपुत्र, मौद्गल्यायन, महाकौष्टिल्य, और शारिपुत्र शामिल थे।

गौतम बुद्ध की महापरिनिर्वाण के बाद क्या हुआ?

गौतम बुद्ध की महापरिनिर्वाण के बाद, उनके शिष्यों ने उनके उपदेशों को फैलाने का कार्य जारी रखा और बौद्ध धर्म को विकसित किया।

गौतम बुद्ध की उपदेशों का क्या मुख्य उद्देश्य था?

गौतम बुद्ध के उपदेशों का मुख्य उद्देश्य दुख से मुक्ति प्राप्त करने के मार्ग को सिखाना और मानवता को अध्यात्मिक उन्नति की दिशा में मार्गदर्शन करना था।

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